अपने अधिकारों व कायाकल्प की उम्मीद लगाए बैठा आदिवासी समाज : डॉ रणधीर कुमार
डॉ रणधीर कुमार
जब देश का संविधान बाबा साहब अंबेडकर द्वारा बनाया गया एवं अस्तित्व में आया तो प्रसिद्ध आदिवासी नेता जयपाल सिंह मुंडा ने कहा की “नए संविधान आदिवासियों के हजारों सालों के उत्पीड़न का एक अवसर है।” वही अवसर के रूप में आज हम भारत के महामहिम के रूप में देश के प्रथम आदिवासी राष्ट्रपति के रूप में श्रीमति द्रौपदी मुर्मू को एक प्रतीक के रूप में देखा जा सकता है । श्रीमती द्रौपदी मुर्मू को भारत के सर्वोच्च पद पर आसीन होना , जल ,जंगल, जमीन के संरक्षक के रूप में खुद को देखने वाले , आजादी के लगभग 75 वर्षो के बाद भी आदिवासी समाज के मुख्यधारा से वंचित रखे जाने में आदिवासी समाज के लिए उम्मीद की किरण जागृत हुई की अब गरीबों ,वंचितों, शोषितो को भी सपने देखने और उसको पूरा होने का भी हक है ।
आज हम आदिवासी समाज के उत्थान, संस्कृति एवं सम्मान को बचाने के लिए हर वर्ष विश्व आदिवासी दिवस के रूप में मना रहे हैं। आजादी की लड़ाई में झारखंड के भगवान बिरसा मुंडा का योगदान किन्ही से छुपी हुई नही है ,किस प्रकार से उन्होंने राष्ट्र के स्वतंत्रता हेतु खुद को समर्पित कर दिया। परंतु सवाल तब खड़ी हो जाती है की क्या सरकार के आज इनके वंशजों व हासिए पर खड़ा आदिवासी समाज के लिए सच्ची निष्ठा पूर्वक सोचा या नही ?? क्या इनके उत्थान, संरक्षण व संवर्धन के लिए विस्तृत निर्णय लिया या नही ?
ये सभी सवाल आज के समय में ज्वलंत है क्योंकि आदिवासी समाज धीरे -धीरे कई कारणों से विलुप्ता के कगार पर जा रही है । एक नीति निर्धारण के तहत इनकी संरक्षण एवं संवर्धन पर विशेष ध्यान ना दे पाना कई जनजातीय समुदाय जैसे असुर, सौरिया पहाड़िया, पहाड़िया माल, पहरिया कोरबा,बिरजिया, बिरहोर सबर जैसे आदिम जनजाति एवं उनका भाषा विलुप्त होने के कगार पर है। इतना ही नहीं छत्तीसगढ़ की एक विशेष जनजाति “पण्डो” जिन्हे राष्ट्रपति के दतक पुत्र कहे जाते हैं परंतु आजादी के 75 वर्षो के बाद भी आज ये शुद्ध पानी, बिजली , आवास, शिक्षा ,स्वास्थ्य एवं समाज के मुख्य धारा में आने हेतु दर दर भटक रहे हैं। नवंबर 2022 में छत्तीसगढ के रायगढ़ में अवस्थित एक गांव जहां पंडो जनजाति के लोग रहते है , उनसे मिलना हुवा तो उनकी स्थिति देख लगा कि सरकार द्वारा आदिवासी कल्याण एवं संरक्षण के लिए बड़ी- बड़ी बाते करना बेतुका एवं बेकार सा है । इन समुदाय के एक छोटे से गांव जो किसी तरह से मिट्टी का छपरी का घर , बिना बिजली-पानी के सुविधा के जीवन जी रहे हैं। पढ़ने के लिए ना हो कोई विधालय, ना ही कोई चिकित्सा सुविधा जो सरकार के बड़े घोषणाओं पर सवालिया निशान खड़ा करती नजर आ रही थी। इनको जो जमीन सरकार द्वारा मिली है वह जमीन आज विचालियो के हवाले होते नजर आ रही है। इन दयनीय हालत को देखते हुए मैंने देश के सर्वोच्च नागरिक को एक पत्र लिख कर सारे मामले से अवगत कराया , तब सरकार एवं नजदीकी प्रशासन जागी एवं अपने अश्रुभरी उम्मीदों को थोड़ी राहत मिली और आज उनको थोड़ी बहुत मूलभूत सुविधाएं मिली। यही कमों बेस हालत लगभग हर हासिये पर खड़ा आदिम जनजाति समुदाय की है जहां पर आज भी सरकार की पहुंच उस स्तर पर नही है ,जिस तरह होनी चाहिए। इसमें कमियां कहां है इसको खोजने की जरुरत है ?
पिछले कई सालो में कई खबरें “भूख से पाकुड़ में एक आदिवासी युवती लुखी मुर्मू की मौत” , “गिरिडीह जिले की बुधनी सोरेन की भूख से मौत”, “रामगढ़ के आदिम बिरहोर की भूख से मौत” , “राजस्थान के पिंडवाड़ा की बेरस फली मोरस की भूख से तड़प तड़प कर मौत” , “ओडिशा के नयागढ़ में आदिवासी महिला दुखी जानी की भूख से मौत, झारखंड”, “लातेहार में सड़क एंबुलेंस के अभाव में खटिया पर ले जाना पड़ा, रास्ते में आदिवासी महिला ने तोड़ा दम” जैसे तमाम कई खबरें, जो मानवीय संवेदना को झकझोर देती है एवं आदिवासी अधिकारों से संबंधित कई बड़े-बड़े वादों पर सवाल खड़ा करती है ।
झारखंड, ओडिशा, छत्तीसगढ ,मध्यप्रदेश एवं अन्य राज्यो में सुदूरवर्ती इलाके में आदिवासी समाज का अन्य धर्मों में व्यापक स्तर पर जुड़ना यह आदिवासियों की संस्कृति ,जीवनशैली एवं विचारधारा को खत्म करती जा रही है।आज आदिवासी पहनावा, भाषा, रहन- सहन लुप्त होते जा रहे हैं । जिस आदिवासी की पहचान उसके जीवन दर्शन से होती है ,उन्हें प्रकृति से जोडता है वह हासिये पर खड़ी होती दिख रही है । आदिवासी लोगो की आस्था हजारों सालों से प्रकृति एवं संस्कृति से निहित है और एक दिलों से एक दूसरे से जुड़े हुए हैं।झारखंड ,ओडिशा, छत्तीसगढ़ अन्य जैसे राज्यों की आदिवासी बेटियां रोजगार के आभाव एवं अशिक्षा के आभाव में मानव तस्करी की शिकार हो कर जिंदगी को नर्क होते देख रही है । आदिवासी युवा बड़े स्तर पर समाज के मुख्य धारा से भटक रहे हैं। आदिवासियों का विस्थापन , पलायन यह बड़ा चिंतनीय विषय है । रिपोर्ट ऑफ हाई लेवल कमिटी ऑन सोशयो इकनॉमिक,हेल्थ एंड एजुकेशन स्टेटस ऑफ ट्राइबल कम्यूनिटीज ऑफ इंडिया नाम की रिपोर्ट में यह जिक्र है की देश के 25 फीसदी आदिवासी अपने जीवन काल में कम से कम एक बार विकास परियोजनाओं के चलते विस्थापन झेलते है। जंगलों और प्रकृति के नजदीक रहने वाले यह आदिवासी समाज विकास के नाम पर अपने जगह से खदेड़ दिए जाते हैं। उनकी जमीन जबरदस्ती लिए जा रहे हैं ,बहन बेटियों की इज्जत लूटी जा रही है । विरोध करने पर उन्हें नक्सल घोषित करके मार दिया जाता है । यह एक बड़ा कारण है की आदिवासी अपना जल, जंगल ,जमीन छोड़ने को मजबूर हैं।
आज आप किसी महानगरों की चौक- चौराहे पर खड़े हो कर या रांची के रातु रोड , मोराबादी एवं अन्य चौराहे पर सुबह- सुबह देखे तो झुंड -झुंड में मजदूरों की भीड़ दिखाई पड़ती है ,जिसमे महिलाएं भी शामिल हैं वह सब मजदूरी की उम्मीद में खड़े होते हैं, जिसमे अधिकतर आदिवासी समुदाय के होते हैं। उनकी स्तिथि बेहद ही दयनीय है ,अगर मजदूरी ना मिले तो इनके घर का चूल्हा कैसे जलेगा , यह सोचने का विषय है ?
आज आदिवासी समाज की बड़ी आबादी समाज के मुख्य धारा से दूर, अपने अस्तित्व को बचाने की लड़ाई लड़ रहा है । सरकार को टीम बना कर जमीनी स्तर पर आदिवासी इलाके में सर्वे कर , सामंजस्य बना कर बेहतर नीति के साथ व्यापक कार्य करने की ज़रूरत है । आदिवासी इलाकों में बेहतर शिक्षा ,स्वास्थ एवं मूलभूत सुविधा से जोड़ते हुए , समाज के युवाओं, बहन- बेटियों को स्किल कोर्स से जोड़ते हुए ,उन्हें स्वरोजगार से जोड़ने की जरूरत है । कृषि कार्यों में अत्याधुनिक प्रणाली को लेकर इनको ट्रेनिंग देते हुए इन्हे आर्थिक रूप से सशक्त बनाए जिस पर पहल होनी चाहिए । इन्हे समस्त मूलभूत सुविधाएं सरकार द्वारा कराई जानी चाहिए जो इनके जीवन हितार्थ बेहद ही उपयोगी हैं । संचालित सभी कार्यों पर विशेष ध्यान जमीनी स्तर पर देने की जरूरत है ताकि इन्हे भुखमरी,गरीबी , पलायन जैसी समस्या से राहत मिले और सरकार की वादे आदिवासी समाज के लिए पूर्ण हो, तभी यह आदिवासी दिवस मनाने की सार्थकता पूर्ण होगी ।
(ये लेखक के निजी विचार है )
लेखक सामाजिक कार्यकर्ता , शिक्षाविद एवं लेखक हैं।
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